क्या 1989 की राजनीति 2022 में राजस्थान में दोहराई जायेगी ?

क्या 1989 की राजनीति 2022 में राजस्थान में दोहराई जायेगी ?
-सत्य पारीक एवं रहमतुल्लाह खान
दिल्ली। मुख्यमंत्री का आलाकमान के पर्यवेक्षक को खाली हाथ लौटना राजस्थान में ही नहीं हुआ , इससे पहले मध्यप्रदेश में ऐसी घटना घट चुकी है 1989 में अर्जुन सिंह वहां के मुख्यमंत्री थे । उनका नाम चुरहट लॉटरी कांड में उछल गया इस कारण कांग्रेस अध्यक्ष राजीव गांधी ने उन्हें हटाकर माधव राव सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाने के लिये गुलाम नबी आजाद को पर्यवेक्षक बना कर भेजा । जिनके सामने अर्जुनसिंह ने शर्त रख दी कि मोतीलाल वोरा को मुख्यमंत्री बनाओ तो वे पद छोड़ सकते हैं । ये सुन कर आजाद खाली हाथ दिल्ली लौट आए , राजीव गांधी को अंततः अर्जुनसिंह की शर्त माननी पड़ी । ठीक उसी तर्ज पर अशोक गहलोत के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार हैं अपनी पसंद के उम्मीदवार है, जबकि पार्टी आलाकमान की पसंद सचिन पायलट है । देखना यह है कि आलाकमान मुख्यमंत्री गहलोत को रखेगी या उनकी पंसद के नेता को सीएम बनाएगी ? क्योंकि आला कमान के पर्यवेक्षक राजस्थान से खाली हाथ लौट चुकें हैं इस कारण गेंद आलाकमान के पाले में है जिसमें राजनीति का गुड़ गोबर करने में संगठन महा सचिव के सी वेणुगोपाल और प्रदेश प्रभारी अजय माकन लगे हुए हैं ।
सोनिया गांधी से गहलोत की मुलाकात के बाद देर रात को जी -23 के आंनद शर्मा की गुप्त मुलाकात भी रहस्यमय हो चुकी है दोनों में क्या गुप् चुप राजनीतिक खिचड़ी पकी । वैसे एक बात है गहलोत ने अपने मंत्रियों व विधायकों को सन्देश दे दिया कि सोनिया गांधी से उन्होंने माफी मांग कर सबका किया धरा अपने माथे ले लिया । उसके बाद एक मूर्खता के सी वेणुगोपाल ने ये कहकर करदी की मुख्यमंत्री का मामला एक दो दिन में तय हो जाएगा जबकि ये कहकर उन्होंने आग में घी डाला है । हकीकत में सोनिया के साथ हुई गहलोत की मुलाकात में सब कुछ तय हो गया था ।
गहलोत के बाद हुई सचिन पायलट की सोनिया से मुलाकात केवल ” ठंडे छींटे ” देने की थी जिसमें सोनिया ने पायलट से कह दिया कि वे 2023 के विधानसभा चुनाव की तैयारी करें , पार्टी के चुनाव जीतने पर उन्हें मुख्यमंत्री बनाया जाएगा । लगता है इस आश्वासन से पायलट खुश नहीं हैं कुछ नया करने पर विचार करेंगे ? अब जरा कांग्रेस का मुख्यमंत्री बदलने का इतिहास देख लेते हैं ।
1989 का जब मध्य प्रदेश में चुरहट लॉटरी कांड हुआ था। उस समय प्रदेश में अर्जुन सिंह की सरकार थी और वे चुरहट से विधायक थे। यही कारण था कि उनपर इस्तीफे का दवाब बनने लगा। लोग ये मांग करने लगे कि जिस मुख्यमंत्री के निर्वाचन क्षेत्र में ये कांड हुआ है, उन्हें मुख्यमंत्री के पद पर बने रहने का काई औचित्य नहीं है। तब केंद्र में भी कांग्रेस की सरकार थी और राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे। उन्होंने ने सोचा चुरहट कांड का बवाल और ज्यादा बढ़े इससे पहले ही मुख्यमंत्री को बदल दिया जाए। उनकी इच्छा थी कि माधवराव सिंधिया को मुख्यमंत्री बनाया जाए। लेकिन, अर्जुन सिंह भी राजनीति के माहिर खिलाड़ी थे। उन्होंने साफ कर दिया कि वे इस्तीफा नहीं देंगे। सिधिंया भी तब तक भोपाल पहुंच चुके थे। वो बस सीएम बनने की घोषणा का इंतजार कर रहे थे। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
अर्जुन सिंह ने अपना इस्तीफा देने से पहले कांग्रेस आलाकमान के सामने एक शर्त रख दी थी। जिसमें उन्होंने कहा था कि मैं तभी इस्तीफा दूंगा जब मोतीलाल वोरा को सीएम बनाया जाएगा। इसके बाद एक समझौते के तहत वोरा को मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया और सिंधिया बस बनते-बनते रह गए। इस घटना से तात्कालिन प्रधानमंत्री राजीव गांधी अर्जुन सिंह से नाराज हो गए। उन्होंने पार्टी में अर्जुन सिंह के धुर विरोधी शायामाचरण शुक्ल को ज्वाइन करवा दिया और मोतीलाल वोरा के बाद शुक्ल को ही मुख्यमंत्री बनाया गया।
अर्जुन सिंह मध्य प्रदेश की राजनीति से निकल कर केंद्र में चले गए। लेकिन उन्होंने सिंधिया को कभी भी मुख्यमंत्री नहीं बनने दिया। एक बार फिर से 1993 में ऐसा लगा कि सिंधिया ही मुख्यमंत्री बनेंगे लेकिन, अर्जुन सिंह गुट ने सिंधिया राजघराने के प्रतिद्वंदी और राघौगढ़ राजघराने के राजा दिग्विजय सिंह को मुख्यमंत्री बनवा दिया। कहा जाता है कि उस वक्त अर्जुन सिंह, दिग्विजय के राजनीतिक गुरू हुआ करते थे। इस कारण से दूसरी बार भी सिंधिया मुख्यमंत्री बनते-बनते रह गए।
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