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वसुंधरा-पायलट झुकेंगे-झुकाएंगे या टूट जाएंगे?

वसुंधरा-पायलट झुकेंगे-झुकाएंगे या टूट जाएंगे?

-सत्य पारीक

जयपुर। कांग्रेस-भाजपा की अंदरूनी व बाहरी राजनीति के गहन अध्ययन के बाद मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत कांग्रेस को संभालने की तैयारी कर रहे हैं। उन्हें मुख्यमंत्री पद की कोई चाह नहीं क्योंकि वे तीन दफा इस पद पर रह चुके हैं , अपने बाद किसी अपने को मुख्यमंत्री पद देना चाहते हैं।

वहीं वसुंधरा राजे भविष्य में मुख्यमंत्री पद पाने का संघर्ष कर रही है। साथ ही राज्य में दोनों की पार्टी में ही टांग खिंचाई की लड़ाई बराबर है, लेकिन सुखद आश्चर्य ये भी है कि वसुंधरा राजे और अशोक गहलोत दो अलग-अलग दलों में भी होकर राज्य की राजनीति की पुरानी परम्परा मिली-जुली कुश्ती खेल रहे हैं जिसके एक-दो प्रमाण हैं।

  1. जब सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश पारित किया था कि कोई भी पूर्व मुख्यमंत्री अपने निवास के लिए सरकारी बंगला नहीं ले सकता। उस समय राज्य की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे थी जो सिविल लाइन के सरकारी बंगले में निवास करती थीं, बतौर पूर्व मुख्यमंत्री। सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय आने के पश्चात गहलोत ने एक पत्र उस समय की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को लिखकर पूछा था कि क्या मैं जिस बंगले में निवास करता हूं उसे खाली करूं या नहीं? इस पत्र के जवाब में गहलोत को निवास में रहने के लिए कहा गया था। इतना ही नहीं वसुंधरा राजे ने किसी पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ पहाडिय़ा, स्व भैरोंसिंह शेखावत के परिजनों से भी बंगले खाली नहीं करवाया।
  2. राजे के बाद अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बन गए इसलिए वे मुख्यमंत्री के सरकारी निवास में रहने आ गए, जबकि राजे स्वयं को पूर्व मुख्यमंत्री के कारण 2013 में मिले सरकारी निवास में बतौर मुख्यमंत्री भी रही और पूर्व होने के बाद भी रह रही थी। उस बंगले का नामकरण राजे ने अपनी माता जी के नाम से कर लिया था ‘अनन्त विजयÓ। जिसे खाली कराने के लिए सड़क पर आंदोलन छेड़ा भाजपा के ही नेता घनश्याम तिवाड़ी ने। साथ ही उच्च न्यायालय में वरिष्ठ पत्रकार मिलाप चंद डांडिया ने याचिका दाखिल की। कुल मिलाकर परिणाम ये निकला कि मुख्यमंत्री गहलोत ने सरकारी नियम बदलकर राजे के निवास वाले 13 नम्बर बंगले को सरकारी विभाग से मुक्त कर विधानसभा के दायरे में शामिल करा दिया। जबकि स्व. शेखावत के परिजनों से दस हजार दैनिक किराया वसूलने के आदेश जारी किए। वहीं पहाडिय़ा से बंगला खाली करा लिया।
  3. गहलोत सरकार को गिराने की कोशिशों के पीछे भाजपा के नेता केंद्रीय राज्य मंत्री गजेन्द्र सिंह शेखावत, प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनियां और राजेन्द्र राठौड़ ने उस समय के उपमुख्यमंत्री व कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष सचिन पायलट के कंधे पर राजनीतिक बंदूक रखकर 19 विधायकों को हरियाणा सरकार का मेहमान बनाकर गुरुग्राम के सरकारी रिसोर्ट में रखा, जिसकी जानकारी राजे से छिपाकर रखी गई लेकिन पायलट के खेमे में मात्र 19 विधायक ही जमा हुए। जबकि कांग्रेस के विधायकों की संख्या 99 होने से पायलट खेमा दलबदल कानून के अनुसार पार्टी को विभाजित नहीं कर सकते थे। पर्दे के पीछे खेले जा रहे इस खेल में मुख्यमंत्री बनने की योजना गजेन्द्रसिंह शेखावत की थी जिनकी पार्टी के 73 विधायक थे लोजपा के 2 विधायकों का समर्थन था। इसकी सुगबुगाहट जब पायलट को लगी तब उन्हें राजनीतिक खेल समझ में आया कि भाजपा उन्हें समर्थन देने की बजाय उनके समर्थन से अपनी सरकार गठित करना चाहती है। उधर गहलोत ने अपने विधायकों की बाड़ा बन्दी कर दी तथा विधानसभा का सत्र बुला लिया। गहलोत सरकार के विश्वास मत का प्रस्ताव ध्वनि मत से पारित हो गया। जबकि भाजपा के 4 विधायक सदन से खिसक गए।
  4. विश्वास मत प्राप्त करने के बाद अशोक गहलोत ने प्रेस कांफ्रेंस में सार्वजनिक रूप से कहा था कि मेरी सरकार गिराने के पक्ष में वसुंधरा राजे नहीं थी। इस कारण उन्होंने मेरी सरकार गिराने की कोशिश करने वालों का साथ नहीं दिया। भविष्य में मैं वसुंधरा की सरकार गठित करने में मदद करूंगा, इसका अर्थ स्पष्ट था कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व वसुंधरा राजे को भावी मुख्यमंत्री घोषित नहीं करेगी। ऐसे में हो सकता है 2023 के विधानसभा चुनाव से पहले वसुंधरा राजे पार्टी से बगावत कर अलग होकर चुनाव लड़ें तब हो सकता है उन्हें कांग्रेस के समर्थन की जरूरत पड़ेगी। गहलोत की ये लम्बी राजनीतिक सोच थी क्योंकि राजस्थान में 2023 के विधानसभा चुनाव में हनुमान बेनीवाल की पार्टी जाट मुख्यमंत्री बनाने की मांग को लेकर चुनाव मैदान में उतरेगी, वहीं आम आदमी पार्टी बुलन्द हौंसले के साथ चुनाव में होगी। जबकि भाजपा प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ेगी। कांग्रेस में दो गुट होना तय है, ऐसे में यदि वसुंधरा राजे अपनी छवि को लेकर चुनाव मैदान में उतरती हैं (जैसी की सम्भावना है) तो राज्य में किसी भी पार्टी को बहुमत जुटाना बेहद कठिन होगा।

मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के साथ-साथ वसुंधरा राजे को भी केंद्रीय रणनीति में फिर से सक्रिय होने का दोनों की पार्टी का शीर्ष नेतृत्व कह रहा है। लेकिन दोनों नेता ही इसे अस्वीकार करते आ रहें हैं जबकि गहलोत और वसुंधरा केंद्र की राजनीति से राज्य की राजनीति में प्रदेशाध्यक्ष बनकर मुख्यमंत्री बने हैं। इस समय दोनों के राज्य में बड़े गुट हैं जो किसी भी नेता को मुख्यमंत्री बना भी सकते हैं और बनने से रोक भी सकते हैं। जैसे राजे ने अपनी पार्टी के गजेन्द्र सिंह शेखावत को शीर्ष नेतृत्व की चाहत के बाद भी प्रदेशाध्यक्ष नहीं बनने दिया। उसी तरह गहलोत ने सचिन पायलट को प्रदेशाध्यक्ष व उपमुख्यमंत्री पद से चलता करने के बाद कांग्रेस की राजनीति में अलग-थलग पड़े रहने को मजबूर कर रखा है। जबकि पायलट अनेक बार घोषणा कर चुके कि उनकी किस्मत अब चमकने वाली है ? लेकिन वो दिन न तो आया है और न ही आने की सम्भावना दूर-दूर तक नजर आरही है।

पायलट के साथ साथ वसुंधरा राजे की राजनीति की नियति ऐसी बन चुकी है कि अगर दोनों ने 2023 के विधानसभा चुनाव में अपने भविष्य को लेकर खास निर्णय नहीं किया तो इनका राज्य की राजनीति से तो सफाया तय है। खास बात ये भी है कि राजे और गहलोत का सक्रिय राजनीति का सफर लगभग लगभग समान रहा है। राजे और गहलोत को केंद्रीय मंत्री से लेकर राज्य के मुख्यमंत्री और लोकसभा से लेकर विधायक सभा तक लम्बा अनुभव प्राप्त है। क्योंकि केंद्र से तो राज्य की राजनीति पर पकड़ रखी जा सकती है मगर राज्य की राजनीति से केंद्र की राजनीति में दखलंदाजी करना बेहद असम्भव है।

एक नजर से देखा जाए तो 2023 का विधानसभा चुनाव पायलट व राजे के लिए निर्णायक मोड़ है, वैसे दोनों अपने-अपने लोकसभा क्षेत्र खो चुके हैं क्योंकि राजे के परम्परागत चुनाव क्षेत्र पर इनके पुत्र दुष्यंत सिंह का कब्जा है, जबकि पायलट का लोकसभा चुनाव क्षेत्र अजमेर भाजपा ने छीन लिया है। अब वे मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्र टोंक से विधानसभा चुनाव लड़कर विधायक हैं जिसके पीछे बड़ा कारण है पायलट की पत्नी मुस्लिम है जो बड़े राजनीतिक घराने फार्रुख अब्दुल्ला की बेटी है।

राजनीति में ये अच्छी तरह कहावत है कि गहलोत अपने राजनीतिक दुश्मनों को किस सफाई से राज्य की राजनीति से सफाया करते हैं। उनमें अगला नम्बर पायलट परिवार का है ठीक उसी तरह जैसे जाट जाति के नेताओं से उन्हें राज्य की राजनीति में चुनौती मिलने की सम्भावना थी, उनका पूरी तरह सफाया कर दिया।

वर्तमान में कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्रियों का कोई भी परिजन इस समय राज्य की सक्रिय राजनीति में नहीं है। वैसे भी अवसर मिलते ही गहलोत अपने राजनीतिक दुश्मन का सफाया कर देते हैं। गहलोत की कूटनीति देखकर राजनीति में मिशाल दी जाती है कि जैसे फि़ल्म ‘मेरा गांव मेरा देश का एक फिल्मी डायलॉग स्मरण हो रहा है। जिसमें डाकू के किरदार में अभिनेता विनोद खन्ना कहता है ‘गब्बर सिंह ने दो ही बातें सीखी हैं-एक मौके का फायदा और दूसरा दुश्मन का सफाया ‘ ये बात गहलोत पर पूरी तरह लागू होती है।

एक खास बात का यहां उल्लेख करना आवश्यक है, वो ये है कि स्व. राजेश पायलट व उनकी धर्मपत्नी श्रीमती रमा पायलट व सचिन पायलट ने विशुद्ध रूप से जातीय राजनीति से चुनाव जीतें हैं। अगर गहलोत को राज्य की राजनीति छोड़कर केन्द्र की राजनीति में जाना पड़ेगा तो ऐसी स्थिति में उनके उत्तराधिकारी डॉ. रघु शर्मा होंगे। डॉ. शर्मा को राजनीति में गहलोत तब लाए थे। जब स्व. राजीव गांधी ने नारा बुलंद किया था कि राजनीति में युवाओं को आगे लाया जाए।

उसी अभियान में गहलोत को केंद्रीय मंत्रिमंडल से सीधा राज्य कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष के पद पर नियुक्त किया था। तब गहलोत की युवाओं की टीम में डॉ. रघु शर्मा व डॉ. महेश शर्मा प्रमुख थे। लेकिन महेश शर्मा पुत्र विवादों में उलझ कर पीछे रह गए व डॉ. रघु राजनीति में बहुत आगे बढ़कर आज गुजरात राज्य के पार्टी प्रभारी के पद हैं जहां पिछले विधानसभा चुनाव में गहलोत उसी पद पर थे।

राज्य में भाजपा की आज जो स्थिति है उस लिहाज से तो लगता नहीं कि पार्टी वसुंधरा राजे को भावी मुख्यमंत्री घोषित कर उनके नेतृत्व में चुनाव लड़ेगी? एक तरफ राजे इस प्रयास में सक्रिय थी कि उन्हें भावी मुख्यमंत्री घोषित कर राजस्थान की बागडोर सौंपी जाए लेकिन प्रधानमंत्री मोदी व गृह मंत्री अमित शाह इसके लिए तैयार नहीं हैं। मोदी व शाह के राजे के साथ अच्छे सम्बन्ध नहीं है क्योंकि राजे ने गत विधानसभा चुनावों से पूर्व इन नेताओं की सलाह को नहीं माना था और मुख्यमंत्री पद छोड़ कर केंद्रीय राजनीति में जाने से मना कर दिया था।

अगर राजे उनकी सलाह मान लेती तो राज्य में 2018 के विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस की बजाय भाजपा की सरकार होती? अब तो ऐसा माना जा रहा है कि प्रदेश की राजनीति में तीसरे राजनीतिक दल की महती आवश्यकता है क्योंकि जनता के पास विकल्प नहीं होने से एक बार भाजपा और एक बार कांग्रेस को वोट देना उसकी मजबूरी बनी हुई है।

जब-जब जनता को कांग्रेस भाजपा का विकल्प मिला है जैसे जनता पार्टी, लोकदल व जनता दल का तब तब इन दलों को सफलता मिली है। लोकदल व जनतादल का आधार जाट जाति थी जबकि जनता पार्टी की जाट, राजपूत जातियां थी। राजे अगर अपने नेतृत्व में नई पार्टी का गठन करती हैं तो इन्हें राज्य की राजनीति में कई लाभ हैं। जैसे महिलाओं के साथ-साथ सभी जातियों का समर्थन इन्हें मिलने की पूरी सम्भावना है।

मौजूदा समय में सांसद हनुमान बेनीवाल का दल तीसरे दल के रूप में है लेकिन उसे भाजपा की ही छाया माना जा रहा है। इसी के साथ अभी तक बेनीवाल की पार्टी नागौर जिले से बाहर नहीं निकली है। बेशक उन्होंने जाट जाति का मुख्यमंत्री बनाने का जाट बाहुल्य जिलों के लिए फेंका है लेकिन जाट बिरादरी में ही चर्चा है कि बेनीवाल अंतत: भाजपा के ही साथ जाएंगे जैसे कि 2019 के बाद से केंद्र व राज्य में उन्होंने भाजपा का साथ देकर अपनी छवि बना ली है अत: उन्हें 2023 के विधानसभा चुनाव में अधिक सफलता मिलना असम्भव दिखाई देता है।

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